Saturday, October 9, 2010

लक्ष्मी मिलती है परिश्रम और पुरुषार्थ से

हर कोई लक्ष्मी (अर्थ) की चाह रखता है लेकिन लक्ष्मी उसी का वरण करती है जो परिश्रमी के साथ ही पुरुषार्थी भी हो। इस तथ्य के पीछे एक सुंदर कथा है-दैत्यों व देवताओं ने जब समुद्र मंथन किया तो उसमें से 14 रत्न निकले। उनमें लक्ष्मी भी थीं। जैसे ही लक्ष्मी समुद्र में से निकली सभी देवताओं ने उन्हें पाने के लिए लालायित हो उठे। सबसे पहले लक्ष्मी ने निगाह डाली तो साधु-संत बैठे हुए थे। वो खड़े हुए और बोले - हमारे पास आ जाओ। लक्ष्मी बोलीं- तुम हो तो भले लोग लेकिन तुमको सात्विक अहंकार होता है कि हम दुनिया से थोड़े ऊपर उठे हैं, भगवान के अधिक निकट हैं तो तुम्हारे पास तो नहीं आऊंगी। अहंकारी मुझे बिल्कुल पसंद नहीं हैं। देवता बोले- इंद्र के नेतृत्व में हमारी हो जाओ। लक्ष्मी ने कहा- तुम्हारी तो नहीं होऊंगी। तुम देवता बनते हो पुण्य से और पुण्य से कभी लक्ष्मी नहीं मिला करती। लक्ष्मी की एक ही पसंद है पुरुषार्थ और परिश्रम। फिर लक्ष्मी ने देखा एक ऐसा है जो मेरी तरफ देख ही नहीं रहा है बाकी सब लाइन लगाकर खड़े हैं तो उनके पास गई। लक्ष्मी ने जाकर देखा तो भगवान विष्णु लेटे हुए थे । लक्ष्मी ने पैर पकड़े, चरण हिलाए। विष्णु बोले क्या बात है? वह बोलीं मैं आपको वरना चाहती हूं। विष्णु ने कहा-स्वागत है। लक्ष्मी जानती थीं कि यही मेरी रक्षा करेंगे। तब से लक्ष्मी-नारायण एक हो गए। भगवान विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता है तो परिश्रमी भी हैं व पुरूषार्थी भी। इसलिए कहा गया है कि लक्ष्मी अहंकारी के पास नहीं जाती तथा सिर्फ पुण्य कर्मों से भी नहीं मिलती। लक्ष्मी का वरण करना है तो परिश्रमी के साथ पुरूषार्थी भी बनो, तो ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

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